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शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

पागा कलगी -26//4//विक्रमसिंह "लाला"

सर सर हवा करत हे , जाड अडबड लागत हे ।
दिन भर डोकरी दाई कापे , नइ जिये तईसे लागत हे ।।
लईका मन के नाक ह बोहाये , गोड हाथ ह फाटत हे ।
सुर-सुर सबो करत हे , आगी ल तापत हे ।।
ठंडा के मारे संगी नहाये के मन नई लागत हे ।
ये ठंडा म चार ठन कथरी ओढे ल लागत हे ।।
दाई ह जुन्ना स्वेटर ल पहिरे बर देवत हे ।
टूरा ह जुन्ना ल नई पहिरव कहिके मुँह ल फुलोत हे ।।
सस्ता पताल के चटनी सब झन खावत हे ।
ये जाड के दिन म संगी कथरी के सुरता आवत हे ।।
सर सर हवा करते हे , अडबड जाड लागत हे ।
दिन भर डोकरी कापे , नई जिये तईसे लागत हे ।।
- विक्रमसिंह "लाला"
मुरता नवागढ बेमेतरा 

पागा कलगी -26//3//जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

आसो के जाड़
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जाड़ म जमगे, माँस-हाड़।
आसो बिकट बाढ़े हे जाड़।
आंवर-भाँवर मनखे जुरे हे,
गली - खोर म भुर्री बार।
लादे उपर लादत हे,
सेटर कमरा कथरी।
तभो ले कपकपा गे,
हाड़ -मांस- अतड़ी।
जाड़ म घलो,जिया जरगे।
मुँहूं ले निकले धूंगिया।
तात पानी पियई झलकई,
चाहा तीर लोरे सूँघिया।
जाड़ जड़े तमाचा; हनियाके।
रतिहा- संझा अउ बिहनिया के।
दाँत किटकिटाय,गोड़-हाथ कापे,
कोन खड़े जाड़ म, तनियाके?
बिहना धुँधरा म,
सुरुज अरझ गे।
गुंगवा के रंग म ,
चोरो-खूंट रचगे।
दुरिहा के मनखे,
चिन्हाय नही।
छंइहा जाड़ म ,
सुहाय नही।
जाड़ ल जीते बर,
मनखे करथे उपाय।
साल चद्दर के तरी म,
लुकाय ऊपर लुकाय।
फेर ठिठुर के मर जथे,
कतको आने परानी।
जे न जाड़ म कथरी मांगे,
न घाम म ;मांगे पानी।
जब बनेच जाड़ बढ़थे।
सुरुज थोरिक चढ़ते।
त बइठे-बइठे रऊनिया म,
गजब मया बढ़थे।
बाढ़े हे बनेच,
आसो के जाड़।
लेवत हे मजा,
अंगरा-अंगेठा बार।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795

पागा कलगी -26//2//सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अँजोर"

विषय:- //आसो के जाड़//
विधा:- रुचिरा छन्द
कइसे के गोठियाँव संगी,
राम कथा इही जाड़ के।
दांत ओंठ कँपवावत दहरा,
भीतर हमागे हाड़ के।
निपटे खातिर ए दहरा ले,
नइहे कोनो जुगाड़ गा।
बुता तियारे करै न कोई,
ढचरा लगावैं ठाड़ गा।
ददा बिचारा मुंधरहा ले,
पैरा भूँसा डारत हे।
नागर बैला फाँद जाड़ ला,
लउठी धर ललकारत हे।
नान्हे बिरवा इही जाड़ ला,
जइसे खड़े अगोरत हे।
गहुँ चना संग सब्जी भाजी,
छछलत कंसा फोरत हे।
नान्हे नान्हे लइका मन ले,
जैसे दहरा हारत हे।
बाँचे बर बुधियार परानी,
झिटका भूर्री बारत हे।
खुसरे खुसरे कमरा भितरी,
बबा बिचारा झाँकत हे।
चहा ल धरके नाती बहु हा,
करत ठिठोली हाँसत हे।
टोर उवे बर चक्कर बँधना,
सुरुज ला जोजियावत हें।
बैठे सबझन आँट गली मा,
रमनिया सोरियावत हें।
रचना:-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अँजोर"
'शिक्षक'गोरखपुर,कवर्धा
25/01/2017
9685216602

पागा कलगी -26//1//ज्ञानु'दास' मानिकपुरी

विषय-आसो के जाड़
विधा-दोहा (गलती ल जरूर बताहू)
1-बहुतेच जनावत हवे,आसो के ये जाड़।
तन मन हर काँपन लगे,संगे संग म हाड़।।
2-हाथ गोड़ ठिठुरन लगे,कट कट करते दाँत।
दिन तो जइसे कट जथे,मुसकुल होथे रात।।
3-गजब सुहाथे रवनिया,भुर्री तपइ मिठाय।
पानी हर चट ले करे,नाहे बर डरराय।।
4-बूढी दाई घर लिपे,बड़े फजर उठ जाय।
बाबू दाई नइ उठे,बबा गजब गुसियाय।।
5-लइका मन खेलें कुदे,जाड़ देख भग जाय।
बारी टेड़े कोचिया,तन तरतर हो आय।।
6-हाथ जोड़ बिनती करें,बूढ़ा बबा बिहान।
हे सुरुज अरजी सुनव,दरसन दव भगवान।।
7-चले हवा सुर सुर गजब,सबके मन ला भाय।
सरसों फूले देख के,तन मन हा झुम जाय।।
8-माटी के महिमा गजब,कहे 'ज्ञानु' कविराय।
तोरे कोरा हन सबो,हर मउसम मन भाय।।
ज्ञानु'दास' मानिकपुरी
चंदेनी कवर्धा(छ.ग.)