शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

पागा कलगी -27//4//✍​ईंजी.गजानंद पात्रे *सत्यबोध*

कुण्डलियां
*बसंत*
(१)
आमा मउरे डार मा,परसा फूले लाल।
कोयल गावत गीत हे,पूछत सबके हाल।।
पूछत सबके हाल,बांध मया संग डोरी।
झूमे नाचे मोर,देख बसंत घनघोरी।।
हरियर डारा पान,सबो के दिन ह बहुरे।
राजा हे रितु आम,गांव अमरइया मउरे।।
(२)
मनभावन मन बावरी,ढूंढय रे मनमीत।
कोयल कूके डार मा,गावय सुघ्घर गीत।।
गावय सुघ्घर गीत,पंख दुन्नो फइलाये।
झूमय नाचय खार,देख बसंत हे आये।
जीना अब दुश्वार,नैन आँसू हे बोहे।
भाये नइ घर संसार,पिया मन भावन मोहे।।
(३)
आगे बिरहा के बखत,लगय जुवानी आग।
करम विधाता का गढ़े,चोला लगथे दाग।।
चोला लगथे दाग,मोर धधकत हे छतिया।
तरसे नैना मोर,मया के भेजव पतिया।।
कोयल छेड़य तान,कोयली मारे ताना।
छलनी छलनी देख,करे ये बिरहा गाना।।
✍​ईंजी.गजानंद पात्रे *सत्यबोध*

पागा कलगी -27//3//ज्ञानु"दास" मानिकपुरी

विधा-दोहा मा लिखे के प्रयास
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-आमा मउरे सब डहर,महुआ हा ममहाय।
डारा बइठे कोयली,सुग्घर तान सुनाय।।
-महर महर बारी करय,हरियर हावय खेत।
आवत हावे फगुनुवा,राखे रहिबे चेत।।
-चंपा,गेंदा,मोंगरा, आनी बानी फूल।
देवत ए संदेश हे,सब राहव मिलजूल।।
- फूले सरसों निक लगे,टेसू झूलें डार।
मतंग तन मन हो जथे,झूमत हे संसार।।
-सुग्घर पुरवाही चलें,तन मन ला हरषाय।
मउसम बसन्त देख के,लगे जवानी आय।।
-स्वागत हे स्वागत हवे,हे बसन्त ऋतु तोर।
मनखे मनखे बन सके,अतके बिनती मोर।।
ज्ञानु"दास" मानिकपुरी
चन्देनी कवर्धा(छ.ग.)

पागा कलगी -27//2//गीता नेह

आगे मयारु बसंत सखी निक पागा मंजूर के पाँख सुहावन
रिगबिग फूल फुले अँगना झरे कहर महर छबि सुग्घर पावन
लाज के रंग रँगाये जिया मुसकावय पिया बड़ लोभ लोभावन
बजे बँसरी मन भीतरी ले झलके रंग जोबन ले मन भावन ।
परेम सुबास सुकंठ धरे भल गुरतुर गोठ हे आनी बानी
अटकय मटकय हपटय लपटय न करय ककरो संग आनाकानी
सुख के पुरव बरजोर करय करे कोन जतन तन के निगरानी
जब मया मतावत रार करय तब जोर चलय नइ चलय सियानी ।
गीता नेह

पागा कलगी -27//1//सुखदेव सिंह अहिलेश्वर'अंजोर'

विषय:- बसंत
"'लाबो चल परघाके द्वार'"
बँबुरी हा पइरी पहिराय।
सुनके सबझन दउड़त जाय।
गोंदा पहिरे पींयर सोन।
कोनजनी पहिराये कोन।
परसा फूले सुरूग लाल।
चुपरे कोनो लाल गुलाल।
सरसो के झूमत हे डार।
पींयर सोन पाय उपहार।
मउरे हे आमा के पेड़।
जेन ल राखे हावय मेड़।
मउहा माते हे सिरतोन।
कोन पियाये हे रस सोम।
पुरवाही छेड़े हे तान।
जइसे मन ला मिले जुबान।
गावत कोन मया के गीत।
जिनगी खोजत हे मनमीत।
आज खुशी भेंटत हे गांव।
अतका पबरित काखर पांव।
कोन भरे हे अइसन रंग।
जइसे सुख दुख मिलगे संग।
नंगारा नाती धर आय।
देख बबा ला खूब बजाय।
पुरवाही हा फगुआ गाय।
अरसी झुमका देय बजाय।
ये सब करनी करे बसंत।
मुच मुच हाँसय चमके दंत।
ऋतु राजा हे परसिध नाव।
आय खड़े हे हमरे ठाव।
सब संगी ला टेही पार।
लाबो चल परघाके द्वार।
रचना:-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर'अंजोर'
शिक्षक,गोरखपुर,कवर्धा
9685216602
15/02/2017

पागा कलगी-26 के परिणाम

पागाकलगी के इतिहास म पहिली बार अतका कम रचना आय हे । रचनाकार मन के आभार जउन ‘आसो के जाड़‘ म अपन कलम चलाइन । कम रचना होय के कारण केवल पहिली स्थान भर दे जात हे । खुशी के बात हे दोहा जइसे प्रचलित छंद के संगे-संग अप्रचलित छंद रूचिरा म घला रचना आय हे । आयोजन विधा मुक्त होय के कारण कोनो विधा ला प्राथमिकता दे के कोनो कारण नई बनय । फेर ये खुशी के बात जरूर हे । शब्द के प्रयोग, गेयता, विषय के समावेश ल ध्यान म रखत ये आयोजन के पागा ला भाई सुखदेव सिंह अहिलेश्वर ‘अँजोर‘ के मुड़ म धरे जात हे -

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

पागा कलगी -26//4//विक्रमसिंह "लाला"

सर सर हवा करत हे , जाड अडबड लागत हे ।
दिन भर डोकरी दाई कापे , नइ जिये तईसे लागत हे ।।
लईका मन के नाक ह बोहाये , गोड हाथ ह फाटत हे ।
सुर-सुर सबो करत हे , आगी ल तापत हे ।।
ठंडा के मारे संगी नहाये के मन नई लागत हे ।
ये ठंडा म चार ठन कथरी ओढे ल लागत हे ।।
दाई ह जुन्ना स्वेटर ल पहिरे बर देवत हे ।
टूरा ह जुन्ना ल नई पहिरव कहिके मुँह ल फुलोत हे ।।
सस्ता पताल के चटनी सब झन खावत हे ।
ये जाड के दिन म संगी कथरी के सुरता आवत हे ।।
सर सर हवा करते हे , अडबड जाड लागत हे ।
दिन भर डोकरी कापे , नई जिये तईसे लागत हे ।।
- विक्रमसिंह "लाला"
मुरता नवागढ बेमेतरा 

पागा कलगी -26//3//जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

आसो के जाड़
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जाड़ म जमगे, माँस-हाड़।
आसो बिकट बाढ़े हे जाड़।
आंवर-भाँवर मनखे जुरे हे,
गली - खोर म भुर्री बार।
लादे उपर लादत हे,
सेटर कमरा कथरी।
तभो ले कपकपा गे,
हाड़ -मांस- अतड़ी।
जाड़ म घलो,जिया जरगे।
मुँहूं ले निकले धूंगिया।
तात पानी पियई झलकई,
चाहा तीर लोरे सूँघिया।
जाड़ जड़े तमाचा; हनियाके।
रतिहा- संझा अउ बिहनिया के।
दाँत किटकिटाय,गोड़-हाथ कापे,
कोन खड़े जाड़ म, तनियाके?
बिहना धुँधरा म,
सुरुज अरझ गे।
गुंगवा के रंग म ,
चोरो-खूंट रचगे।
दुरिहा के मनखे,
चिन्हाय नही।
छंइहा जाड़ म ,
सुहाय नही।
जाड़ ल जीते बर,
मनखे करथे उपाय।
साल चद्दर के तरी म,
लुकाय ऊपर लुकाय।
फेर ठिठुर के मर जथे,
कतको आने परानी।
जे न जाड़ म कथरी मांगे,
न घाम म ;मांगे पानी।
जब बनेच जाड़ बढ़थे।
सुरुज थोरिक चढ़ते।
त बइठे-बइठे रऊनिया म,
गजब मया बढ़थे।
बाढ़े हे बनेच,
आसो के जाड़।
लेवत हे मजा,
अंगरा-अंगेठा बार।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795