सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

पागा कलगी -20//6//ज्ञानु मानिकपुरी"दास"

छत्तीसगढ़ी गजल
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नफरत के काँटा ल छाटे ल परही जी।
मया पिरीत के पौधा लगाये ल परही जी।
काबर भुलागे मनखे अपन करम ल
करम धरम मनखे ल सिखायें ल परही जी।
भुले रहिथे ऐहर नशाखोरी दुराचारी म
खींच के सोझ रद्दा म रेंगाये ल परही जी।
पुरखा के रीति रिवाज ल छोड़त जात हे
दिखावा छोड़के रीति रिवाज ल अपनाये ल परही जी।
ये माटी के सेवा जतन करेबर भुलागे रे
मशीनी के भरोसा ल छोड़ाये ल परही जी।
21वीं सदी म जीयत हन अउ बलि देथन ग
अंधविश्वास के थाती ल हटाये ल परही जी।
अबके लईकामन लोक लिहाज नइ जानय ग
पढ़ें लिखे के संग संस्कार धराये ल परही जी।
बहु बेटा मन दाई ददा के मान नइ करय ग
दाई ददा हे भगवान के रूप बताये ल परही जी।
ना कोनो अमीर ना कोनो गरीब जी
उच्च नीच के भेदभाव ल मिटाये ल परही जी।
कब तक जीबो हमन अंधियारी म"ज्ञानु"
जुरमिलके ये सब 'अंधयारी ल मिटाये' परही जी।
ज्ञानु मानिकपुरी"दास"
चंदेनी कवर्धा

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