बुधवार, 14 सितंबर 2016

पागा कलगी-17//15//जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

मुक्तक(1)
सुवारथ के घोड़ा ला, झन दंऊड़न दे गनपति।
समुंदर में माया के , झन तंऊरन दे गनपति।
चुने मुसवा माया के, ओढ़े कपड़ा-लत्ता ला,
भगति के पाना-डारा ला, मंऊरन गनपति।
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मुक्तक(2)
तोर आंसू नई बोहाय,
दूसर के आंसू पोंछबे त।
तोर तनमन नई मइलाय,
निक बात बिचार ल सोंचबे त।
तोर करनी ल “गनपति“
सरेखत हेवे ग,
नीम कइसे निकलही बीरवा,
केरा के खोंचबे त?

-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795

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